Saturday, December 13, 2008

जीना इसी का नाम है......







"मर के भी किसी को याद आएंगे, किसी के आंसुओं में मुस्कुराएंगे।
कहेगा फूल हर कली को बार बार
जीना इसी का नाम है......"

एक लौ इस तराह क्युं बुझी मेरे मौला













एक लौ इस तराह क्युं बुझी मेरे मौला .........

गर्दिशों में रेहती,
रेहती ज़िंदगी आहें कितनी
इन में से एक है,
तेरी मेरी आखरी
कोइ एक जैसी अपनी
पर ख़ुदा खैर कर ऐसा अंजाम
कीसी रूह को ना दे कभी
गुझा मुस्कुरता है क्युं वक़्त यहाँ
से पेहेले क्युं छोड़ चला तेरा ये जहाँ
एक लौ इस तराह क्युं बुझी मेरे मौला
एक लौ ज़िंदगी की.. मौला
एक लौ इस तराह क्युं बुझी मेरे मौला
एक लौ ज़िंदगी की.. मौला
धूप के ऊजाले सी, पुन्स की प्याले सी,
खुशियां मिले हम को
ज़्यादा मांगा है कहाँ, सरहदें ना हो जहां,
दुनिया मिले हम को
पर खुदा खैर कर
उस के अरमान में क्युं बेवझा हो कोइ क़ुरबान
गुझा मुस्कुराता है क्युं वक़्त
से पेहले क्युं छोड चला तेरा ये जहां
एक लौ इस तराह क्युं बुझी मेरे मौला
एक लौ ज़िंदगी की.. मौला
एक लौ इस तराह क्युं बुझी मेरे मौला एक लौ ज़िंदगी की.. मौला
एक लौ इस तराह क्युं बुझी मेरे मौला एक लौ ज़िंदगी की.. मौला

Taken from "Amir"


Friday, December 5, 2008




समंदर- गेटवे ऑफ़ इंडिया- विधान भवन - चौपाटी - मेट्रो सिनेमा- होटल ताज - नरीमन हाउस- सी .एस. टी .......ये वो नाम रहे है जो हर भारतीय की जुबान पर रेंगते रहे है.इन्हीं आँखों से हम हकीकत भी देखते है और खवाब भी, खुली आँखों से ऐसा भयावह दृश्य एक काले -अंधेरे खवाब जैसा लगता है, एक ऐसा खवाब जिसमे धुंआ ही धुंआ और धुओं में लिपटी जिंदगियां. पिछले दिनों जो हुआ, उस पर यकीन करना मुश्किल हो रहा है , सबसे बड़ी वजह ये की आतंकवादियों का अंतर्राष्टीय स्थलों को चुनना.
पुरी दुनिया हम पे हंस रही है की हमने अपनी कमान किन जोकरों को दे रखा है . बेशर्मों को अगले चुनाव की अगली तैयारी में गंठजोड़ करते देख रहा हूँ पर अभी इस घटना को बीते एक ही हफ्ते हुए है पर इन्हे मैंने एक साथ बैठ कर इस समस्या का निराकरण कैसे निकले इस पर कभी मिलते नही देखा . हमारी लड़ाई तो दोनों तरफ़ से है एक घर के बाहर वालों से और दूसरी घर के अन्दर वालों से. अन्दर वालों का चेहरा धूमिल ज़रूर दिख रहा है पर ढूँढना हमें ही होगा कितने शर्म की बात है की जीन लोगों को हम चुन के भेजते है की ये हमारे देश का हित करेंगे वो ही इन सारे मंज़र के पीछे किसी न किसी रूप में मुख्य किरदार का काम निभा रहे है. जिन्हें हमारी सुरक्षा के लिए तत्पर होना चाहिए वो तो ख़ुद विशिष्ट सुरक्षा के बिच महफूज़ है और उनकी सुरक्षा कर रहे सैनिकों को कितनी ठेस लगती होगी जो इन बंदरों की सुरक्षा कर रहे है . आम् आदमी कैसे इस माहौल में जी रहा है ये तो तभी पता चलेगा जब इनकी सुरक्षा छीन ली जाए .
मुझे नही लगता की हम भारतियों को जागने के लिए इस से बड़ी कोई वजह हो सकती है अगर इसके बाद भी हम अपने आप से रूबरू नही होते तो इस से बड़ी शर्म की बात हो ही नही सकती. क्या हम 9/11 जैसी घटना का इंतज़ार कर रहे है. इस से पहेल की तारीख हमें बदले हमें तारीख को बदल देना चाहिए .

Thursday, December 4, 2008

इस बार नहीं







इस बार नहीं
इस बार जब वह छोटी सी बच्ची मेरे पास अपनी खरोंच लेकर आएगी मैं उसे फू-फू करके नहीं बहलाऊंगा पनपने दूंगा उसकी टीस को
इस बार नहीं
इस बार जब मैं चेहरों पर दर्द लिखूंगा नहीं गाऊंगा गीत पीड़ा भुला देने वाले दर्द को रिसने दूंगा उतरने दूंगा गहरे इस बार नहीं इस बार मैं ना मरहम लगाऊंगा ना ही उठाऊंगा रुई के फाहे और ना ही कहूंगा कि तुम आंखे बंद करलो, गर्दन उधर कर लो मैं दवा लगाता हूं देखने दूंगा सबको हम सबको खुले नंगे घाव
इस बार नहीं
इस बार जब उलझनें देखूंगा, छटपटाहट देखूंगा नहीं दौड़ूंगा उलझी डोर लपेटने उलझने दूंगा जब तक उलझ सके


इस बार नहीं


इस बार कर्म का हवाला दे कर नहीं उठाऊंगा औज़ार नहीं करूंगा फिर से एक नई शुरुआत नहीं बनूंगा मिसाल एक कर्मयोगी की नहीं आने दूंगा ज़िंदगी को आसानी से पटरी पर उतरने दूंगा उसे कीचड़ में, टेढ़े-मेढ़े रास्तों पे नहीं सूखने दूंगा दीवारों पर लगा खून हल्का नहीं पड़ने दूंगा उसका रंग इस बार नहीं बनने दूंगा उसे इतना लाचार की पान की पीक और खून का फ़र्क ही ख़त्म हो जाए
इस बार नहीं
इस बार घावों को देखना है गौर से थोड़ा लंबे वक्त तक कुछ फ़ैसले और उसके बाद हौसले कहीं तो शुरुआत करनी ही होगी इस बार यही तय किया है

Composed By Prasoon Joshi