Saturday, December 13, 2008

एक लौ इस तराह क्युं बुझी मेरे मौला













एक लौ इस तराह क्युं बुझी मेरे मौला .........

गर्दिशों में रेहती,
रेहती ज़िंदगी आहें कितनी
इन में से एक है,
तेरी मेरी आखरी
कोइ एक जैसी अपनी
पर ख़ुदा खैर कर ऐसा अंजाम
कीसी रूह को ना दे कभी
गुझा मुस्कुरता है क्युं वक़्त यहाँ
से पेहेले क्युं छोड़ चला तेरा ये जहाँ
एक लौ इस तराह क्युं बुझी मेरे मौला
एक लौ ज़िंदगी की.. मौला
एक लौ इस तराह क्युं बुझी मेरे मौला
एक लौ ज़िंदगी की.. मौला
धूप के ऊजाले सी, पुन्स की प्याले सी,
खुशियां मिले हम को
ज़्यादा मांगा है कहाँ, सरहदें ना हो जहां,
दुनिया मिले हम को
पर खुदा खैर कर
उस के अरमान में क्युं बेवझा हो कोइ क़ुरबान
गुझा मुस्कुराता है क्युं वक़्त
से पेहले क्युं छोड चला तेरा ये जहां
एक लौ इस तराह क्युं बुझी मेरे मौला
एक लौ ज़िंदगी की.. मौला
एक लौ इस तराह क्युं बुझी मेरे मौला एक लौ ज़िंदगी की.. मौला
एक लौ इस तराह क्युं बुझी मेरे मौला एक लौ ज़िंदगी की.. मौला

Taken from "Amir"


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